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वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे
रोज़ इक ख़्वाब देख लेते थे
अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
हम कभी आसमाँ पे रहते थे
आख़िरश ख़ुद तक आन पहुँचे हैं
जो तिरी जुस्तुजू में निकले थे
ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और
लोग अपने घरों में सोए थे
हम कहीं दूर थे बहुत ही दूर
और तिरे आस-पास बैठे थे
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मुश्किल का सामना हो तो हिम्मत न हारिए
हिम्मत है शर्त साहिब-ए-हिम्मत से क्या न हो
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वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे
रोज़ इक ख़्वाब देख लेते थे
अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
हम कभी आसमाँ पे रहते थे
आख़िरश ख़ुद तक आन पहुँचे हैं
जो तिरी जुस्तुजू में निकले थे
ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और
लोग अपने घरों में सोए थे
हम कहीं दूर थे बहुत ही दूर
और तिरे आस-पास बैठे थे
(अख़्तर रज़ा सलीमी)
क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा
वो रहे और आइना मद्धम रहा
ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
आदमी से आदमी बरहम रहा
रह गई हैं अब वहाँ परछाइयाँ
इक ज़माने में जहाँ आदम रहा
पास रह कर भी रहे हम दूर दूर
इस तरह उस का मिरा संगम रहा
तू मिरे अफ़्कार में हर पल रही
मैं तिरे एहसास में हर दम रहा
जी रहे थे हम तो दुनिया थी ख़फ़ा
मर गए तो देर तक मातम रहा
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ये कह के दिल ने मिरे हौसले बढ़ाए हैं
ग़मों की धूप के आगे ख़ुशी के साए हैं
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हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है
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दुनिया में वही शख़्स है ताज़ीम के क़ाबिल
जिस शख़्स ने हालात का रुख़ मोड़ दिया हो
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मुश्किल का सामना हो तो हिम्मत न हारिए
हिम्मत है शर्त साहिब-ए-हिम्मत से क्या न हो**